तहजीब में भी उसकी क्या खूब अदा थी
नमक अदा किया ज़ख्मों पर छिड़क कर
नमक अदा किया ज़ख्मों पर छिड़क कर
*
मैं जिसे दिन कहूँ, तू कहे रात, कैसे सही?
तेरी ख़ुशी में झूम कर जश्न मनाया करू मैं
तेरे जश्न का कारण हो मेरी हार, कैसे सही?
तू चल दिया फिर नए रिश्ते जोड़ने के लिए
मेरी आँखों में डबडबाये हालात, कैसे सही?
आज हंस रहा है तू जीत कर दांव खेल के
पर मैं बिना खेले मान लूँ हार , कैसे सही?
मैं इतराऊं तेरे नाम से अपना नाम जोड़ कर
तू मेरे नाम ही को कर दे ख़ाक, कैसे सही?
मैं चाहा करूँ तुझे टूट कर दिन पर दिन
तू तोड़कर, कर दे मुझे बेज़ार, कैसे सही?
*
लुत्फ नही आया तुमसे तकरार में
कुछ कमी रही शायद अपने प्यार में
*
*
ज़िन्दगी का फलसफा यूँ समझ आया
कोई छूट गया तो कोई साथ न आया
*
*
हौसलों में मौजूद हो और ज़िन्दगी से गुमशुदा
तुमने कुछ अजीब सा दस्तूर अपनाया हुआ है
*
*
काश कुछ राहें पश्म की भी होती
गुज़रती जैसे फ़क़त अंगूठी है ज़िन्दगी
*
*
जा रही हूँ मैं धीरे धीरे
कतरा कतरा;
छूट रहा है सब
जो भी था समेटा
मोह की गाँठे भी
खोल दी हैं
अब रुकने का दिल
नही है
तुम बुन लेना
अधबुने सपनों को
पिरो कर ख्याल के धागे
कल्पना की सुई में
कर टांग देना फिर
बंदनवार की तरह,
घुंघुरूओ से सजाकर
चौखट पर
जिससे खनखना उठे
ये अहसास, हवा के छूने पर भी
यही, जहाँ जन्मे थे ये
जहाँ जन्में थे हम
*
बातें जुबां तक आई ,
पर लफ्ज़ो में बदलने से पहले
कुछ यूँ पलटी , की बातों के मायने बदल गए
अलफ़ाज़ कुछ और ही बन गए
और मैं, अपनी बेबसी पर हँस दी
सोचने लगी ,क्यों बोल पड़ते हैं हम
" जैसा तुमको ठीक लगे
आखिर ये तुम्हारी ज़िन्दगी है "
जब हक़ जताने की चाह का उफान
चरम सीमा पर होता है
हम खुद ही लौ को धीमा कर देते हैं
और भूल जाते हैं ,
कि उफान जब तक ना आएगा
दिल लौ पर जलता ही जायेगा
*
फ़क़त पुतला न समझो, आदम जात को
काठ के तराशे, जो होते है वही दिखते है
*
जाने के बाद और लौट आने से पहले
होते हो तुम साथ पास आ जाने से पहले
कहता है ज़माना मुझे उसमें लुत्फ़ नहीं
करे तो वो तेरी बात, मेरी बात से पहले
जुड़ जातीं है ज़िन्दगियाँ चाहो या न चाहो
मिल जाएँ गर ख्यालात, ज़ज़्बात से पहले
शतरंज का खेल नहीं है तेरा मेरा रिश्ता
कि चलनी पड़े चाल हर चाल से पहले
तुझको लिखा लाई थी मैं अपनी तक़दीर में
कि सम्भल जाऊँ हर बार गिर जाने से पहले
*
देख खुशबू आ रही है मिट्टी तुझ से सौंधी- सौंधी
कैसे छिपायेगी बरस कर गया है अभी- अभी कोई
*
*
लचक है,लोच है मानो जान है तब तक
अकड़ जाता है इंसान रूह जाने के बाद
*
*
मैं फ़ूँकती रहूँगी, तुम भी सिगड़ी सुलगाते रहना
किस्मत की आंच फिर कब तक मगरूर रहेगी
*
ना राज़ खोल किसी की मुफलिसी के
बेपर्दा वो होगा, शर्मिन्दगी तुझे होगी
*
*
अब ना होना कभी तुम हम पर मेहरबां
देखनी है अब खुद के सब्र की इन्तेहाँ
*
*
सोचोगे दिल से तो मुक्कमल ख्याल निकलेगा
होगी हलचल ऐसी,सवाल पर सवाल निकलेगा
जलाओगे तो रौशन हर घर में एक दीप होगा
नहीं तो बस सिसकता हुआ मलाल निकलेगा
ना मुझे कम मिला है न तू छीन ले गया है ज्यादा
दोनों के हाथों में एक पसीजता रुमाल निकलेगा
दुनिया बस वो नहीं है जो बसी है तेरे मेरे दायरे में
झांको तो हर सीने में सांस लेता जलाल निकलेगा
*
*
सूरत भी है सुर्ख, सीरत में भी है खुशबू
रोते हो कांटो पर,कैसे तुम्हे गुलाब कह दूँ
*
ग़मो से रिश्ता अपना कुछ नया सा है
पाया है अभी मगर लगता अपना सा है
बस जायेगा जब दर्द बन हर एक रग में
कहेंगे तब यही रहता है , यही का सा है
अक्सर उठाता है बेवजह गहरी नींद से
रातों में जगाता हुआ कोई बच्चा सा है
*
*
मिला करो चाहे तुम अन्जानों की तरह
ना मिला करो पर ऐसे ,बेगानों की तरह
नजर आते हैं दरमियां बस खिज़ा के फूल
जब मिलते हो उजङे गुलिस्तानों की तरह
एक सन्नाटा सा है अब तेरे मेरे रिश्ते में
जैसे गुजर चुके हों अहसास तूफानों की तरह
खुश्क इतना ना कर जाना यूँ आना अपना
के हम पर ना आए फिर आब वीरानों की तरह
*
*
मुख़्तसर सी बात है~
गर याद करोगे, याद आओगे
भुला दोगे; भुला दिए जाओगे
*
कभी तो मिलोगे
हर दायरा तोड़ कर
हर बात छोड़ कर
बस एक एहसास लिए
कि मैं हूँ...
मैं हूँ, क्यूँकि
कुछ रह जाता है
अधूरा सा,हर बार , मिलने के बाद...
उस अधूरेपन में
खुद को पूरा करने की धुन में
कुछ साँझा लम्हों में
विचारों में , तकरारो में
मैं हूँ
एक अनकहे सच में
तुमको पूरा पा लेने के लालच में
खुद को न्योछावर करते समर्पण में
तुमको दिख रहे दम्भ में,
अकड़ में
मैं हूँ
मैं हूँ , क्योंकि तुम हो
मैं हूँ, क्योंकि तुम मुझे सोचते हो
तुम्हारी सोच मेरा विस्तार है
मेरा वजूद है , सार है
*
जाने के बाद और लौट आने से पहले
होते हो तुम साथ पास आ जाने से पहले
कहता है ज़माना मुझे उसमें लुत्फ़ नहीं
करे तो वो तेरी बात, मेरी बात से पहले
जुड़ जातीं है ज़िन्दगियाँ चाहो या न चाहो
मिल जाएँ गर ख्यालात, ज़ज़्बात से पहले
शतरंज का खेल नहीं है तेरा मेरा रिश्ता
कि चलनी पड़े चाल हर चाल से पहले
तुझको लिखा लाई थी मैं अपनी तक़दीर में
कि सम्भल जाऊँ हर बार गिर जाने से पहले
*
*
इस तरह हुई जीत, कि मेरी हार हुई
कुछ बंधन टूटे, कुछ में गिरफ्तार हुई
कैसा मुकाम है, कौन सा आसमान है
जहाँ अब्र हुआ तू और मैं बरसात हुई
धूम रहेगी अब जश्न की सदियों तक
कुछ गलियां शहर की यूँ आबाद हुई
मिला वो सुकून मुझे उस ठिकाने पर
बिखर कर थी पहुँची, खुद मकान हुई
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